Home देश प्रणव की विरासत को आगे बढ़ाने का कोविंद पर होगा दबाव

प्रणव की विरासत को आगे बढ़ाने का कोविंद पर होगा दबाव

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नई दिल्ली

प्रणव 2012 में सक्रिय राजनीति में रहते हुए सीधे रायसीना हिल पहुंचे। वह जब राष्ट्रपति उम्मीदवार बने थे तो मनमोहन सरकार में नंबर दो की हैसियत रखते थे। सक्रिय राजनीति में रहते हुए जब वह देश के प्रथम नागरिक बने तो राजनीतिक प्रतिबद्धता को उन्होंने तटस्थता में बदला, लेकिन बेबाकी वही रखी।

चाहे लोकपाल आंदोलन हो या फिर असहनशीलता पर उठे विवाद, प्रणव ने अपनी राय मजबूती से रखी। इसका दबाव केंद्र सरकार पर भी दिखा। विपक्ष को भी संसद में हंगामा करने पर आड़े हाथों लिया और खरी-खरी सुनाई। अब तक के तमाम राष्ट्रपतियों में सबसे खरा बोलने वालों में भी वह आगे रहे।

ऐसे में अब सबकी नजर कोविंद पर रहेगी कि वह अपने विचारों को किस तरह रखते हैं। प्रणव कांग्रेस नेता रहे थे और 2014 के बाद केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुआई में बीजेपी की सरकार बनी। अब नवनिर्वाचित राष्ट्रपति कोविंद, जिनका बैकग्राउंड बीजेपी नेता का रहा है, जब भी कोई विचार रखेंगे तो यह जरूर परखा जाएगा कि इसमें उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि का अंश है या नहीं।

ऐसे में रामनाथ कोविंद के पास यह चुनौती अधिक होगी। साथ ही यह पहला मौका है जब बीजेपी का नेता इस पद तक पहुंचा है। 2002 में अटल बिहारी की अगुआई वाली सरकार में एक मौका मिला था, लेकिन तब बीजेपी ने एपीजे अब्दुल कलाम के रूप में गैर राजनीतिक व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाया था। इस लिहाज से भी कोविंद के टर्म पर बहुत नजर रहेगी।

बिहार गवर्नर का बेहतर रिकॉर्ड
अगर बिहार के गवर्नर के रूप में कोविंद के रिकॉर्ड को देखें तो सकारात्मक संकेत आते हैं। बिहार के गवर्नर के रूप में उनके नाम की घोषणा के साथ ही सियासी बवाल हुआ। सीएम नीतीश कुमार ने उनकी नियुक्ति पर कड़ी आपत्ति जताई कि उन्हें जानकारी तक नहीं मिली। ऐसे विवादों के बीच नीतीश कुमार से उनका समन्वय इतना बेहतर रहा कि जेडीयू ने विपक्षी एकता को छोड़ उन्हें वोट तक दिया।

कोविंद के करीबियों के अनुसार वह बहुत सरल और मृदुभाषी हैं, लेकिन बहुत सहज तरीके से अपनी बात को प्रभावी अंदाज में कह देते हैं। राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उन्होंने पहली प्रतिक्रिया में जिस तरह अपनी जीत को गरीब और पिछड़ों की जीत बताया उससे उन्होंने वही संदेश पहुंचाने की कोशिश की जिस मंशा से बीजेपी ने उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया था।

क्या मजबूत सरकार में राष्ट्रपति का रोल सीमित है?
14वें राष्ट्रपति चुनाव के बीच यह सवाल भी उठ रहा है कि क्या मजबूत सरकारों में राष्ट्रपति या गवर्नर जैसे पद की भूमिका सीमित होती है? ऐसे समय जब केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में मजबूत सरकार है, क्या रामनाथ कोविंद की भूमिका सीमित रहेगी? अगर इतिहास देखें तो मिश्रित मिसाल मिलती है। देश में राष्ट्रपति और प्रधानमत्री के बीच तीखे विवाद की पहली बड़ी मिसाल तब सामने आई जब केंद्र में सबसे मजबूत बहुमत वाली सरकार थी।

1985 में तत्कालीन पीएम राजीव गांधी और तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के बीच तीखे मतभेद हुए थे। इस अपवाद को छोड़ दें तो अब तक ऐसी कोई बड़ी मिसाल नहीं है कि जब राष्ट्रपति का दखल सरकार के बीच रहा है। प्रणव मुखर्जी ने जरूर मोदी सरकार को शुरुआत ही में बार-बार ऑर्डिनेंस जारी करने पर अपनी नाखुशी जाहिर की थी। अब देखना होगा कि ऐसे मसलों पर कोविंद क्या रुख अपनाते हैं।

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