गुजरात चुनाव के नतीजों के बारे में अनुमान लगाने में तो मशहूर शरलॉक होम्स जैसों के भी पसीने छूट जायेंगे. अनुमान की राह में इतने ज्यादा ‘किंतु-परंतु और लेकिन’ नजर आ रहे हैं कि बेचारे जासूस को बार-बार अपनी दाढ़ी खुजानी होती और भौंहों को तान-सिकोड़कर अपन सोच के समीकरण दुरुस्त करने पड़ते.
इस बार के विधानसभा चुनाव में कुछ भी सीधा-सादा नहीं है. चुनाव की यह तेज रफ्तार रहस्य कथा इतनी ज्यादा घुमावदार है कि शरलॉक होम्स जैसा जासूस भी थक-हारकर उसे अनसुलझा छोड़ दे. चुनाव अभियान की शुरूआत के एक पखवाड़े बाद दो चीजें बिल्कुल साफ हैं: एक तो यह कि दोनों दल खुले मैदान में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नजर आ रहे हैं लेकिन अपने ऑफिस के एकांत में बिल्कुल असमंजस में हैं. दूसरी बात कि हिंदुत्व के जुमले की जगह जातिगत पहचान के मुहावरे ने ले ली है और इस तरह बीजेपी से उसका सबसे बड़ा हथियार छिन गया है.
चुनावी गुणा-भाग और समीकरण बैठाने के मामले में वीरता का कोई अवॉर्ड दिया जाता हो तो फिर शौर्य और पराक्रम के ऐसे सबसे ऊंचे अवार्ड के हकदार निश्चित ही अमित शाह होंगे. गुजरात के चुनाव में एक अकेले वही हैं जो बीजेपी को 150 सीट मिलने की भविष्यवाणी कर रहे हैं.दुर्भाग्य कहिए कि बीजेपी के कार्यकर्ताओं तक को लग रहा है कि अमित शाह कुछ ऐसा देख पा रहे हैं जिसे हम माइक्रोस्कोप लगाकर भी ना देख पाएं. तो फिर, बीजेपी इतने असमंजस में क्यों है?
शरलॉक होम्स की इस सलाह पर गौर कीजिए- सबसे बड़ा पाप है बिना डेटा के सिद्धांत बघारना. पूरे तथ्य सामने ना हो तो सिद्धांत बचाने के ख्याल से आदमी उपलब्ध तथ्यों में ही तोड़-मरोड़ करने लगता है जबकि होना चाहिए इसका उल्टा. सिद्धांत तथ्यों के हिसाब से बदले जाने चाहिए.
यह सिद्धांत कि बीजेपी 150 सीटें जीतने जा रही है, दो महत्वपूर्ण तथ्यों की अनदेखी पर टिका है. एक तो यह कि राहुल गांधी, हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर को सुनने के लिए भारी भीड़ जुट रही है. यह तीन नेता बीजेपी के खिलाफ चुनावी जंग की अगुवाई कर रहे हैं. अब यह यकीन कर पाना मुश्किल है कि नया नेता और नई बात सुनने के ख्याल से इतनी भारी भीड़ राहुल गांधी, हार्दिक पटेल या फिर अल्पेश ठाकोर की सभा में जुट रही है.
राहुल गांधी की सभा के बारे में तो यह बात निश्चित तौर पर गलत है क्योंकि 2014 के लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी की रैलियां कमाल आर खान की फिल्मों से भी ज्यादा फ्लॉप साबित हो रही थीं.कोई ना कोई व्याख्या होनी चाहिए कि आखिर राहुल गांधी की राजनीति ने केआरके (कमाल आर खान) वाला चोला उतारकर एसआरके (शाहरुख खान) वाला बाना कैसे धारण कर लिया.
दूसरी बात यह कि बीजेपी अभी तक अपने चुनावी अभियान का मुहावरा नहीं तय कर पाई है. अब चाहे इसे बीजेपी के लिए आप अच्छा मानें या बुरा लेकिन फिलहाल बीजेपी राहुल, हार्दिक, अल्पेश और दलित कार्यकर्ता जिग्नेश मेवाणी की बातों पर सिर्फ प्रतिक्रिया करती नजर आ रही है. बीजेपी के लिए परेशानी का सबब यह भी है कि जीएसटी, नोटबंदी, बेरोजगारी और आरक्षण की मांग उसके चुनावी अभियान की राह में रोड़ा बनकर खड़े हैं. और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए ध्रुवीकरण या कह लें भावनाओं का उभार लोगों में जोर पकड़ता नहीं दिख रहा.
बीजेपी सियासत के आसमान में अपनी पसंद के गुब्बारे बेशक उड़ा रही है. वह कश्मीर, पाकिस्तान और रोहिंग्या जैसे विषयों के गुब्बारे बीच-बीच में चुनावी फिजां में तैराने में लगी है. इस हफ्ते नवसारी (सूरत के नजदीक) की सभा में अमित शाह ने तो यह भी कहा कि हम गुजरात को कर्फ्यू-मुक्त जिंदगी देंगे.